प्रथम निदेशक
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प्रो. भालचंद्र बाबा जी दीक्षित (1902-1977):
शरीर क्रिया वैज्ञानिक और भैषजिक विद
अध्यापक और प्रशासक
अमरावती के एक जाने माने वकील परिवार में 7 सितम्बर 1902 को जन्म लेने वाले भालचंद्र बाबा जी दीक्षित, इनका गंतव्य स्वतंत्र भारत के चिकित्सा क्षेत्र में मूल संरचना के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का था। उन्होंने पारिवारिक परम्परा से अलग हटकर एक चिकित्सक बनने का निर्णय लिया। उन्होंने 1925 में ग्रांट मेडिकल कॉलेज, मुम्बई से स्नातक उपाधि प्राप्त की। उनके लगभग 40 वर्ष के कैरियर में दो समान चरण आए। शुरूआती 20 वर्षों में उन्होंने एक वैज्ञानिक के रूप में प्रतिष्ठा हासिल की और अगले 20 वर्षों में उन्होंने एक स्नेहमय अध्यापक और आदर्श प्रशासक के रूप में अपनी उल्लेखनीय मानवीय विशेषताएं प्रकट की।
डॉ. बी. बी. दीक्षित, वैज्ञानिक : 1926 - 1946
डॉ. दीक्षित ने 1926 में अपना अनुसंधान कैरियर आरंभ किया जब वे कलकत्ता के स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एण्ड हाइजीन के भैषजिक विज्ञान विभाग में गए ताकि वे प्रो. आर एन चोपड़ा द्वारा वहां किए जाने वाले विस्मयकारी कार्य में भाग ले सकें। आज जो एक सरल उपकरण प्रतीत होता है, इसके लिए उन्होंने एंटी मलेरिया एल्केलॉइड के कार्डियोवेस्कुलर प्रभाव की अंतर्निहित प्रक्रिया को ज्ञात किया, भारत में एफेड्रा पौधों में मौजूद छद्म्ा एफेड्रिन की दक्षता को समझा और मॉर्फिन के एक प्रतिस्थापक के रूप में नार्कोटिन की विश्वसनीयता को परखा। उन्होंने ये सभी कार्य 3 वर्ष के अंदर किए और 1927 में सार्वजनिक स्वास्थ्य में डिप्लोमा हासिल किया।
1930 में 28 वर्ष की युवा आयु में उन्हें मेडिकल कॉलेज, विशाखापटनम के फॉर्मेकोलॉजी विभाग में प्रोफेसर नियुक्त किया गया। उन्होंने वहां चालुमुग्रा तेल के सर्व प्रथम कुष्ठ रोधी व्युत्पन्नों का मूल्यांकन किया और साथ ही मेरुरज्जु के निश्चेतक के रूप में पर्टेन की निरापदता का अध्ययन किया। विशाखापटनम में उनके द्वारा किए गए कार्य की सराहना हुई, किन्तु उन्हें 1931 में अपने पद से किसी कारण के बिना कार्य मुक्त कर दिया गया, क्योंकि उनके समाप्ति पत्र में यह स्पष्ट रूप से लिखा था कि एक पात्र फार्मेकोलॉजिस्ट इस मद्रास प्रेसीडेंसी के पद हेतु उपलब्ध हो गया। ब्रिटिश शासन को यह कदम उठाने में कोई अफसोस नहीं हुआ, जिससे राष्ट्रीय एकता की भावना को हानि हुई।
डॉ. दीक्षित 1931 में एडिनबर्ग गए, जहां उन्होंने रॉयल कॉलेज ऑफ फिजिशियन की सदस्यता प्राप्त की। उन्होंने फार्मेकोलॉजी विभाग में प्रो. ए जे क्लार्क के साथ कार्य किया। प्रो. क्लार्क डॉ. दीक्षित की क्षमताओं से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्हें शरीर क्रिया विज्ञान में अध्यापन सहायक के रूप में कार्य करने का प्रस्ताव दिया � यह एक भारतीय के लिए उन दिनों एक असामान्य उपलब्धि थी। उनकी भावनाओं से प्रेरित होकर डॉ. दीक्षित ने 1933 में न केवल अपनी एमआरसीपी की उपाधि प्राप्त की बल्कि एक वर्ष बाद पीएचडी भी किया। एडिनबर्ग में डॉ. दीक्षित का कार्य एक केन्द्रीय न्यूरोट्रांसमीटर के रूप में एसीटाइल कोलीन पर केन्द्रित था, यह विषय आज भी पुराना नहीं है। उन्होंने इसके लिए सरल तकनीकें अपनाई, जैसे वेगस तंत्रिका के मध्य भाग में मस्तिष्क के पाश्वीय पार्श्व वेंट्रिकल के अंदर एसीटाइल कोलीन का इंजेक्शन दिया गया और इसके लिए एट्रोपिन तथा फाइसास्टिग्माइन जैसे एजेंटों का उपयोग किया गया और उन जंतुओं से प्राप्त सेरिब्रोस्पाइनल तरल (सीएसएफ) के प्रभावों का अध्ययन भी किया गया जिनकी वेगस तंत्रिका को काटा गया था और मस्तिष्क के विभिन्न भागों में एसीटाइल कोलिन सांद्रता का अध्ययन किया और कॉर्टेक्स ने इसकी अधिक सांद्रता ज्ञात की। एसीटाइल कोलिन पर इनका कार्य अत्यंत प्रतिष्ठित है और अब यह इस क्षेत्र के क्लासिकल साहित्य का भाग है। एडिनबर्ग में उन्होंने हाइपोथैलेमस के साथ कार्डियक अनियमितताओं, इनके संबंध पर कैफिन के असर और कार्डियक अनियमितताओं पर सोडियम बार्बिटोन के प्रभावों को भी ज्ञात किया। यह कार्य कार्डियक एरिथमिया क रोगियों द्वारा चाय, काफी और कोलाड्रिंक लेने पर उन्हें दी जाने वाली सलाह के संगत है। डॉ. दीक्षित ने एडिनबर्ग में किए गए कार्य वर्ष 1933 और 1934 में जर्नल ऑफ फिजियोलॉजी (लंदन) में प्रकाशित किए। वे 1934 में भारत वापस आ गए। यहां वापस आने के बाद शीघ्र ही उन्होंने सुश्री हीराबाई से विवाह किया जो एक स्नातक तथा मराठी भाषा की विशिष्ट कवियत्री थीं। वे एक सक्षम और समझदार जीवनसाथी सिद्ध हुईं तथा उनके पूरे जीवन हर परिस्थिति में साथ खड़े रहकर उनकी उपलब्धियों को अप्रत्यक्ष योगदान देती रहीं। डॉ. दीक्षित कुछ समय बेरोजगार रहने के बाद डॉक्टर सी जी पंडित की सिफारिश पर बंबई के हाफकिन संस्थान में इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन (आईसीएमआर का पूर्व वर्ती) के प्रथम भारतीय निदेशक बनाए गए।
हाफकिन संस्थान में डॉ. दीक्षित ने एसीटाइल कोलीन पर अपना कार्य जारी रखा, मलेरिया के प्रतिरक्षा विज्ञान पर एक संक्षित कार्य किया, मलेरिया और प्लेग में इस्तेमाल होने वाली दवाओं का व्यापक अध्ययन किया और साथ ही सांपों का फार्म बनाया, जिससे सांप के जहर और एंटी विनोम का अध्ययन किया जा सके। वे द्वितीय विश्व युद्ध के समय हापकिन संस्थान में कार्यरत थे, अत: उन्होंने सशस्त्र सेनाओं के लिए भी कुछ विशेष कार्य किए। इन कार्यों के लिए शीघ्रता, मूल और वास्तविकता की आवश्यकता थी क्योंकि ये समस्याएं अनूठी थीं और इनके लिए पाठ्यपुस्तकों के सूत्र कार्य नहीं करते थे। डॉ. दीक्षित ने स्वयं को इस कार्य के लिए भी समान सिद्ध किया।
बी.बी. दीक्षित, अध्यापक और प्रशासक
डॉ. दीक्षित को 1946 में बी जे मेडिकल कॉलेज, पुणे में प्रधानाचार्य और शरीर क्रिया विज्ञान के प्रोफेसर पद पर नियुक्त किया गया। इस कॉलेज द्वारा पहले कार्य चिकित्सा में प्रशिक्षण लाइसेंस प्रदान किए जाते थे, जिसे प्रशिक्षण चिकित्सा स्नातकों हेतु उन्नत बनाया गया और यह कार्य डॉ. दीक्षित को सौंपा गया था। इस कार्य ने एक अध्यापक और प्रशासक के साथ उनकी मानवीय विशेषताओं के रूप में उनकी क्षमताओं को प्रकट करने में सहायता दी। जब एक जिम्मेदारी अच्छी तरह निभाई जाती है तो दूसरी आ जाती है। उन्हें बंबई सरकार में 1951 मे महाशल्य चिकित्सक के पद पर नियुक्त किया गया। उनका कार्य क्षेत्र स्वास्थ्य देखभाल और चिकित्सा शिक्षा तक बॉम्बे प्रेसीडेंसी में पूरी तरह व्याप्त हो गया। परन्तु अभी सबसे बड़ी चुनौती आनी शेष थी, जो कोई भी व्यक्ति उस तरह निभा सकता था जिस प्रकार जिस प्रकार उन्होंने ने निभाई। सरकार ने 1956 में नई दिल्ली में कार्य चिकित्सा का एक उत्कृष्टता केन्द्र स्थापित किया जो देश में एक आदर्श के रूप में कार्य कर सके और तेजी से बढ़ते चिकित्सा महाविद्यालयों की संख्या के लिए अनुसंधान उन्मुख अध्यापक भी तैयार कर सके। इस केन्द्र को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) का नाम दिया गया और डॉ. बी. बी. दीक्षित को इसके प्रथम निदेशक के रूप में कार्य करने का आमंत्रण दिया गया। उनकी नियुक्ति उन सर्वोत्तम बातों में से एक थी जो एम्स के आरंभ से अब तक हुई।
एम्स, जिसका सृजन एक स्वायत्त संस्थान के रूप में किया गया था, यह भारतीय चिकित्सा परिषद के क्षेत्राधिकार से बाहर है, डॉ. दीक्षित को ऐसी पाठ्यक्रम कार्यान्वित करने की स्वतंत्रता थी जिसें चिकित्सा शिक्षा में होने वाली नवीनतम उन्नतियों को विचार में लिया जाए और यह समय था जब राष्ट्रीय जरूरतों को ध्यान में रखा जाना था। डॉ. दीक्षित के प्रेरणादायी नेतृत्व ने कुछ सर्वोत्तम भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिकों को वापस आने और एम्स में अपने कार्य जारी रखने का आकर्षक प्रस्ताव दिया जो विदेशों में कार्यरत थे। एम्स जैसे संस्थानों की स्थापना राष्ट्र निर्माण का एक हिस्सा थी, जो भारत के विषय में नेहरू जी की कल्पना रही कि यह अपनी खोज दोबारा करें और इसकी महानता वापस लाएं। यहां के संकाय, छात्रों, तकनीशियनों, मालियों और सफाई कर्मचारियों आदि ने मिल जुल कर डॉ. दीक्षित के नेतृत्व में एम्स को चिकित्सा जगत में एक प्रतिष्ठित नाम बना दिया।
बी.बी. दीक्षित, व्यक्ति
एक प्रशासक के रूप में डॉ. दीक्षित बहुत स्पष्ट विचाराधारा वाले थे। उन्होंने यहां किसी बाहरी या असंगत कारकों का प्रभाव होना अस्वीकार कर दिया। वे हमेशा समस्या की जड़ तक जाते और एक निष्पक्ष, स्पष्ट और उचित न्याय करते थे। फाइलों पर उनकी टिप्पणियां खास तौर पर अपने छोटे आकार के लिए जानी जाती थी, वे या तो �हां, बीबीडी� या �नहीं, बीबीडी� लिखा करते थे। इसके अलावा वे सौ प्रतिशत ईमानदार, किसी पूर्व अवधारणा से परे होते थे। वे एक व्यक्ति के सामने ही स्पष्ट रूप से किसी भी मामले में अपने विचार व्यक्त कर देते थे और ठीक वही बात फाइल पर भी लिख देते थे। यह आम तौर पर उस स्थिति से प्रतिकूल था जब लोगों का यह गलत विचार था कि प्रशासन किसी प्रकार का जोड़ तोड़ या प्रवंचन का नाम है। डॉ. दीक्षित और न्याय के प्रबल समर्थक थे। वे झूठ से बहुत अधिक घृणा करते थे, किन्तु पूरी तरह पूर्वाग्रह से परे थे। इस विशेषता ने उनका स्तर उच्च बना दिया। यहां तक कि उन्होंने यदि कोई दुखद बात देखी तो वे दोषी को सजा देते थे, किन्तु 5 मिनट के अंदर सब कुछ भूल जाते थे। वे प्रत्येक मुद्दे, प्रत्येक फाइल पर उसकी विशेषतओं के अनुसार पूरी तरह पूर्वाग्रह रहित बन कर विचार करते थे। उन्होंने अपने आज के निर्णय पर पिछले दिन का असर नहीं ओने दिया। यहां तक कि जो लोग इसकी मांग करते थे, वे अस्वीकार कर देते थे। उनकी याचिका का आदर और प्रशंसा करते हुए वे ऐसा करते थे, क्योंकि उनके निर्णय सिद्धांतों पर आधारित थे, व्यक्तिगत विचारों पर नहीं।
डॉ. दीक्षित एक असाधारण प्रशासक थे, फिर भी उन्हें अमर बनाने वाली विशेषता है उनका प्रेम और आदर, जिसके साथ उन्हें बी. जे मेडिकल कॉलेज और एम्स के छात्र कई पीढियों तक याद रखेंगे। उनकी सैद्धांतिक क्षमता अपार थ, उनमें प्रशंसनीय प्रायोगिक कौशल थे और वे अध्यापन के लिए एक उच्च विकसित प्रतिभा थे। उन्होंने जीवन भर खेलों से प्रेम किया, जिसके कारण वे युवा वर्ग से जुड़े रहे। वे विश्वविद्यालय स्तर के हॉकी खिलाड़ी थे और जीवन में आगे चलकर उन्होंने टेनिस और बैडमिंटन खेला। परन्तु छात्रों के बीच उनकी लोकप्रियता का कारण यह नहीं था कि वे उनके साथ खेले या उन्हें पढ़ाया, यह मानना उनके साथ अन्याय होगा। वे एक अत्यंत ईमानदार, निर्भीक और स्वार्थ रहित अभिभावक के समान विचारधारा वाले व्यक्ति थे जो छात्रों को पूरी तरह शर्त रहित प्रेम देते हैं, और उसके बदले में कोई उम्मीद नहीं रखते हैं। इसका परिणाम यह था कि छात्र उनके बारे में उतने ही निश्चिंत रहते थे जितने कि 10 वर्ष के बच्चे रहते हैं या वे अपने माता पिता के सभी बातें पसंद नहीं करते, किन्तु एक बात में पूरी तरह सुनिश्चित है कि उन्हें पता होता है कि उनके माता पिता उन्हें स्नेह करते हैं, वे केवल उनकी भलाई चाहते हैं और कभी भी जानबूझकर उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। छात्र डॉ. दीक्षित के बारे में भी ऐसा ही महसूस करते थे। डॉ. सी. जी. पंडित, जिन्होंने डॉ. दीक्षित को हाफकिन संस्थान भेजा था और साथ ही एम्स में नियुक्ति के लिए भी उनके नाम की सिफारिश की थी, कोई सोच सकता है कि वे केवल एक कीमती चीज़ के लिए डॉ. दीक्षित के लिए ईर्ष्या रख सकते थे : वे छात्रों से उस प्रकार का स्नेह पा सकते जैसा डॉ. दीक्षित को मिला था। केवल इतना ही नहीं डॉ. पंडित को शायद ही ऐसा कोई अध्यापक मिलता क्योंकि छात्र अध्यापकों पर अपना प्रेम दर्शाने में भी अलग अलग तरीके से ईमानदारी और चयन दर्शाते हैं।
यह पूछना उपयुक्त होगा कि किस बात ने उनके व्यवहार को इतना सहज बनाया, जो हम में से अधिकांश के लिए बहुत कठिन है। इसका उत्तर प्रो. एन के भिडे ने दिया, जो 1947 में बी जे मेडिकल कॉलेज में स्कूल के छात्र थे और आगे चलकर एम्स में एक युवा संकाय सदस्य के रूप में उनके साथ कार्यरत रहे : �डॉ. दीक्षित में कुछ गहरी आध्यात्मिक विशेषताएं थीं� केवल आध्यात्मिकता एक ऐसी क्षमता और स्वभाव है जो सभी आत्माओं को एक समान जोड़कर देखती है � क्या एक व्यक्ति उस प्रकार से सार्वभौमिक और स्वार्थहीन और प्रेम से भरा हो सकता है, जितने डॉ. दीक्षित थे। एकात्मकता के प्रति उनकी इस संकल्पना ने उन्हें एक नव नियुक्त चौकीदार की बात का पालन और सम्मान करने की क्षमता दी, जिसने पुस्तकालय (जो धूम्रपान रहित क्षेत्र है) में प्रवेश करते समय उनकी सिगरेट की ओर इशारा किया। उन्होंने जिम्मेदारी और अलगाव की भावना के साथ चौकीदार के प्राधिकार का सम्मान किया क्योंकि दोनों ही मामलों में यह उचित था, उन्हें ईश्वर द्वारा सौंपे गए पवित्र के रूप में या कुछ ऐसा कार्य जो अन्य लोगों को वश में रखने का अधिकार रखते हैं। इससे वे एक अत्यंत संतुष्ट व्यक्ति बन गए। इसके बाद वे एम्स के निदेशक बने, वे इसके अलावा और कुछ नहीं चाहते थे � सरकार से, दोस्तों से या अपने छात्रों से। इस विशेषता ने उन्हें निडर, सच्चा और गैर पक्षपाती बनाया। इसी कारण वे अनेक आमंत्रण अस्वीकार कर देते थे : वे एम्स के निदेशक पद पर रहते हुए कभी भी विदेश नहीं गए। उन्होंने ने इसे ही अपनी भौतिक कर्म भूमि बनाया, ताकि वे अपनी नियति द्वारा उनके लिए रचित जिम्मेदारी अधिकतम रूप से उठा सके। डॉ. दीक्षित ने गीता में जीवन के सार के बारे में बताई गई आध्यात्मिकता को पूरी तरह अपनाया :
वह जो योग है, शुद्ध आत्मा है, अपना स्वामी है, जिसमें इंद्रियों पर विजय प्राप्त की है, जिसका स्व सभी अस्तित्वों का स्व बन गया है, जबकि वह सभी कार्य करता है, किन्तु इनमें शामिल नहीं है।
उनका देहांत उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार एक गहरे आध्यात्मिक व्यक्ति का होना चाहिए। उन्हें अपने देहांत का संकेत काफी पहले मिल गया था, परन्तु वे अपने जीवन के अंतिम दिन तक शारीरिक रूप से चलनशील और मानसिक रूप से स्थिर बने रहे। उनकी पत्नी उनकी अनिश्चित बीमारी की स्थिति को देखते हुए अपने माता पिता के घर जाने से हिचक रही थी, परन्तु उन्होंने अपनी पत्नी को वहां जाने के लिए प्रेरित किया। उनकी पत्नी दो सप्ताह के लिए बाहर गई और वे उनके वापस लौटने तक बने रहे, जिस दिन वे वापस आईं, उन्होंने अपनी पत्नी से अंतिम विदा ली और यह निर्णय भी उनके अन्य सभी निर्णयों के समान तीव्र, स्पष्ट और शीघ्र लिया गया निर्णय था। एक दर्द रहित, अचानक ही आ जाने वाला अंत और जो इतना भी अचानक नहीं था कि उसके पीछे पश्चातापों और पछतावों को छोड़ा जाए। डॉक्टर बी बी दीक्षित की सौवीं जन्म वर्षगांठ एक उपयुक्त अवसर है कि स्वतंत्रता के पश्चात पुनर्जागरण के बीच इस सेनानी को आईजेपीपी के लिए सलाम किया जाए।
आभार
मैं मोहन बी दीक्षित का आभारी हूं जिन्होंने यह मूल्यवान सामग्री मुझे दी और प्रो. एन के भिडे जिन्होंने प्रो. बी बी दीक्षित के विषय में एक अंतर्दृष्टि प्रदान की।
आर. एल. बिजलानी
शरीर क्रिया विज्ञान विभाग
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान
नई दिल्ली -110029