बाल शल्य चिकित्सा विभाग
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बाल शल्य चिकित्सा विभाग का सृजन 1969 में डॉ. पी. उपाध्याय के साथ एक स्वतंत्र विभाग के रूप में किया गया था जो विभाग के प्रथम प्रमुख थे। इसके बाद विभाग की अध्यक्षता प्रो. एम रोहतगी (1987-1993) और इसके बाद प्रो. डी. के. मित्रा (1993-2005), प्रो. डी. के. गुप्ता (2005�2011) और प्रो. वी. भटनागर (2011-) ने की। वर्तमान में प्रो. डी. के. गुप्ता सीएसएमएमयू, लखनऊ के उप कुल सचिव के रूप में लियन पर हैं।
विभाग सदैव अग्रणी स्थान पर रहा है और इसे देश के न केवल उत्कृष्टतम विभागों में से एक कहा गया है बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गुणवत्ता, रोगी देखभाल, अध्यापन, प्रशिक्षण और अनुसंधान के लिए जाना जाता है। विभाग में नवजात शल्य चिकित्सा सघन देखभाल की एक आधुनिकतम इकाई स्थापित की गई है जो देश में पहली बार बनाई गई है। इस विभाग ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाल शल्य चिकित्सा के विकास को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
विभाग का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संघों तथा विभिन्न संस्थाओं में नियमित रूप से किया जाता है, इसकी वर्तमान स्थिति को प्रदर्शित किया जाता है और यह अपने प्रमुख अध्यापन संस्थान से बाल शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान भी देता है।
विभाग का इतिहास
विभाग के इतिहास को याद करना एक मधुर अनुभव है और इसमें उपलब्धियों का गर्व जुड़ा हुआ है। प्रतिदिन के जीवन में जिस प्रकार कठिन क्षण याद नहीं रहते और पीछे छूट जाते हैं उसी प्रकार हम ऐसी प्रत्येक घटक से उभर कर पहले से अधिक मजबूत बनते हैं।
वर्ष 1968 में ऐसा हुआ था, जब शल्य चिकित्सा के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. पी. उपाध्याय बाल शल्य चिकित्सा में विश्व स्वास्थ्य संगठन की अध्येतावृत्ति पाने के बाद वापस आए और उन्होंने एम्स के सामान्य शल्य चिकित्सा विभाग में बाल शल्य चिकित्सा इकाई का प्रभार संभाला। 29 मार्च 1971 को ऐसा पहली बार हुआ जब आंवल अंतत: काटी गई और बाल शल्य चिकित्सा विभाग का जन्म हुआ और डॉ. पी. उपाध्याय इसके प्रथम प्रमुख बनाए गए। यह शल्य चिकित्सा वॉर्ड के अंदर 24 बिस्तरों के साथ की गई एक विनम्र शुरूआत थी और इसमें दो रजिस्ट्रार थे - डॉ. एल के शर्मा और डॉ. आर के कश्यप। डॉ. एम रोहतगी ने मई 1970 में सहायक प्रोफेसर के रूप में विभाग का कार्यभार संभाला, इसके बाद विभाग में संकाय संख्या बढ़ कर छ: हो गई जब डॉ. डी. के मित्रा (1976), डॉ. वी. भटनागर (1984), डॉ. डी. के. गुप्ता (1985), डॉ. एम. बाजपेयी (1988), डॉ. एस. अग्रवाला (1994) और डॉ. एम श्रीनिवास (1999) ने कार्यभार संभाला।
डॉ. पी उपाध्याय 1976 में पहली बार प्रोफेसर बने और वे 1987 में अपनी सेवानिवृत्ति तक विभाग के प्रमुख बने रहें। इस समय के बाद से डॉ. एम रोहतगी एक रेल दुर्घटना में मृत्यु होने तक जनवरी 1993 तक विभाग के प्रमुख रहे। विभाग के एक पूर्व सदस्य, प्रो. डी के मित्रा ने 1993 में विभाग के प्रमुख का कार्यभार संभाला।
प्रथम एम. चा. प्रशिक्षु, डॉ. एस चूणामड़ी का चयन जुलाई 1972 में किया गया था और तब से देश और विदेश में जिम्मेदार अध्यापन पदों पर 70 एम. चा. प्रशिक्षुओं को यहां से प्रशिक्षण मिला है। लगातार बढ़ते क्लिनिकल और अनुसंधान कार्यभार के कारण सीनियर रेजीडेंट की संख्या 1979 में दो से चार को बढ़ाकर 1982 में छ: की गई और अंतत: 1994 में यह नौ हो गई। विभाग द्वारा जुलाई 1979 में बाल शल्य चिकित्सा (एमबीबीएस के बाद) में छ: वर्ष का समेकित एम. चा. पाठ्यक्रम आरंभ किया गया था और यह अब तक जारी है। इसके अलावा विभाग द्वारा सामान्य शल्य चिकित्सा में स्नातकोत्तरों, बाल रोग और नाभिक चिकित्सा में 2-12 सप्ताह का प्रशिक्षण स्नातकोत्तर छात्रों के लिए आयोजित किया जाता है और उन्हें बच्चों की शल्य चिकित्सा संबंधी सामान्य समस्याओं और उनके प्रबंधन के बारे में जानकारी दी जाती है। विभाग में देश के विभिन्न केन्द्रों से बाल शल्य चिकित्सा के स्नातकोत्तर छात्र आकर 4-12 सप्ताह का प्रशिक्षण लेकर नवजात शल्य चिकित्सा की तकनीकों और ऑपरेशन के बाद की देखभाल के बारे में अनुभव प्राप्त करते हैं।
प्रायोगिक कार्य एम. चा. प्रशिक्षण का एक अविभाज्य अंग है और इसके अलावा अनेक क्लिनिकल परियोजनाएं चलाई जाती हैं। विभाग की प्रायोगिक प्रयोगशाला में अब एक ऑपरेटिंग माइक्रोस्कोप, एग इंक्यूबेटर, हिस्टोपैथोलॉजी की स्लाइड पर प्रसंस्करण के उपकरण, लैमिनर फ्लो, ऑपरेटिंग माइक्रोस्कोप, डीप फ्रीज और अन्य अनेक उपकरण हैं। इसका अपना जंतु सुविधा क्षेत्र है। स्पिलिन संरक्षण, सीएसएफ शंट, जन्मजात विकृतियों में भ्रूण - विषालु कारकों, सिस्ट के दोहराव, शल्य चिकित्सा की चयापचय प्रतिक्रिया, बाइलरी एट्रेसिया, अंतरलिंग विकार, बच्चों में मूत्र संबंधी समस्याओं, आंत के एट्रेसिया इसोफेगस के एट्रेसिया आदि क्षेत्रों में मूल प्रायोगिक कार्य किए जो हैं। विभाग में अनेक नवाचार किए गए हैं जिन्हें रोगियों के लाभ के लिए प्रतिदिन अभ्यास में लाया जाता है।
अप्रैल 1993 में विभाग को एक झटका लगा जब विभाग के कार्यालय और प्रयोगशालाओं में आग लग गई, जिससे मूल्यवान अभिलेख और उपकरण नष्ट हो गए। आज हमारे सामने जो विभाग मौजूद है वह एक भारी हानि के बाद पुन: निर्मित किया गया है।
बाल शल्य चिकित्सा वॉर्ड को इसकी वर्तमान स्थिति पर वर्ष 1969 में पांचवें तल पर पुन: स्थापित किया गया था और अब यहां 40 बिस्तर हैं। नवजात शल्य चिकित्सा सघन देखभाल इकाई को हाल ही में उन्नत बनाकर इसे 10 नवजात शिशुओं के लिए तैयार किया गया है तथा इसमें प्रत्येक नवजात के लिए आधुनिकतम जीवन समर्थन प्रणालियां मौजूद हैं (वेंटिलेटर, मॉनीटर, इंफ्यूजन पंप, ह्यूमिडीफायर, फोटोथैरेपी मशीन, ब्लड गैस एनालाइजर और अन्य)।
विभाग को अन्य संबद्ध विभागों जैसे संवेदनाहरण, नाभिकीय चिकित्सा, विकिरण विज्ञान, विकृति विज्ञान, ओंकोलॉजी तथा नवजात विज्ञान से कठिन समय में समर्थन मिलता है। विभाग में विशेष सेवाओं को विस्तारित किया जा रहा है तथा हाइड्रोसिफेलस, बाल मूत्र रोग विज्ञान, ओंकोलॉजी, अंतरलिंग विकारों तथा प्रसव पूर्व निदान एवं प्रबंधन के क्षेत्रों में दोपहर के क्लिनिक चलाए जाते हैं। नवजात शिशुओं में प्रसव पूर्व ज्ञात की गई विकृतियों के प्रबंधन के लिए आरंभ किया गया फॉलोअप क्लिनिक दक्षतापूर्वक कार्य करता है।
ब्लड गैस एनालाइजर और चार चैनल वाला रिकॉर्डर 1972 में वॉर्ड में लगाए गए थे, अब जिन्हें उन्नत बनाया गया है। यूरोडायनेमिक मशीन क्लिनिक तथा अनुसंधान दोनों ही प्रयोजनों में कार्य करती है। माइक्रो एनालाइजर और मल्टी चैनल निगरानी प्रणालियों को हाल में लाया गया है। अब वार्ड में विशेष देखभाल का क्षेत्र नवीनतम निगरानी उपकरण, वेंटीलेटर, इंट्राक्रेनियल प्रेशर निगरानी युक्ति और यूरोफ्लोमिट्री तथा एनोरेक्टल मैनोमिट्री जैसे उपकरणों से सज्जित है। हाल ही में इसोफेजियल पीएच और मैनोमिट्री उपकरण जोड़े गए हैं। विभाग में नवजात शिशुओं और विभिन्न प्रकार के विकारों से पीडि़त बच्चों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए डॉपलर अल्ट्रा साउंड मशीन लगाई गई है।
1975 में पहली बार प्रथम नवजात सर्जिकल आईसीयू की स्थापना भारत में सबसे पहले एम्स में की गई थी। आरंभ में यह दो अलग अलग क्यूबिकलों में थी जिसमें से एक बच्चों के शल्य चिकित्सा वॉर्ड में थी। आगे चलकर इसकी सीमाओं को महसूस किया गया और 1979 में इसे एक अपने वातानुकूलन संयंत्र, एयर फिल्ट्रेशन संयंत्र के साथ एक अलग हिस्से में स्थापित किया गया था तथा इसे 7 नवजातों की क्षमता सहित तापमान और नमी नियंत्रण हेतु तैयार किया गया और इसमें ब्रिटिश सरकार द्वारा कोलम्बो योजना के तहत आंशिक सज्जा की गई थी। संस्थान पर लगातार बढ़ते कार्यभार के कारण नवजात शल्य चिकित्सा आईसीयू को बढ़ाकर अब 10 नवजात बच्चों के लिए तैयार किया गया है। अब इसे पूरी तरह बदल दिया गया है तथा यहां आधुनिकतम इंक्यूबेटर, खुली शिशु चिकित्सा देखभाल प्रणालियां, पोर्टेबल इंक्यूबेटर, नवजात वेंटीलेटर, मल्टीफंक्शन मॉनीटर, नवजात बच्चों का वजन लेने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वेइंग मशीन, ह्यूमेडीफायर, सिरिंज पंप और स्लो सक्शन मशीनें लगाई गई हैं1
अपने आरंभ से ही विभाग ने बच्चों की सभी शल्य चिकित्सा संबंधी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास किया है। उपाध्याय शंट भारत में अपने प्रकार का पहला उपकरण था जिसका निर्माण विभाग में स्वदेशी रूप से विकसित वॉल्व के इस्तेमाल से किया गया था। विभाग को नवजात शल्य चिकित्सा, बाल तंत्रिका शल्य चिकित्सा, वक्ष शल्य चिकित्सा, प्लास्टिक सर्जरी, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल शल्य चिकित्सा, हिपेटो बाइलरी शल्य चिकित्सा, यूरोलॉजिक शल्य चिकित्सा, ओंको शल्य चिकित्सा तथा एंडोस्कोपिक शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में प्रसिद्धि तथा उत्कृष्टता केन्द्र का दर्जा मिला है। यहां प्रवेश की संख्या जो 1973 में 443, 1983 में 1083, 1993 में 1641, 2004-05 में 2201 अर्थात लगातार बढ़ती गई है। 2010-2011 में एबी 5 वॉर्ड में दाखिलों की कुल संख्या 1219 और एबी 5 आईसीयू 205 थी। प्रतिवर्ष किए जाने वाले ऑपरेशनों की संख्या में भी यही रुझान दर्शाया गया। ऑपरेशन करने की क्षमता में वृद्धि के लिए किसी के साथ बाल संवेदनाहरण, बाल विकिरण विज्ञान, बाल विकृति विज्ञान और बाल नाभिकीय चिकित्सा में विकास किए गए। दुर्भाग्य से बाल शल्य चिकित्सा विभाग इस बड़े संस्थान का हिस्सा है और इसलिए यहां उपलब्ध बिस्तरों की संख्या तथा ऑपरेशन का समय हमारे लिए सीमित रह जाता है और रोगियों को नियमित सर्जरी के लिए भी कुछ माह से वर्ष तक की प्रतीक्षा सूची का सामना करना पड़ता है। आने वाले पृष्ठ में विभाग के क्लिनिकल कार्य का सारांश दिया गया है।
बाल शल्य चिकित्सा विभाग का वार्षिक प्रतिवेदन : 2010�2011
रोगी उपचार
बाह्य रोगी विभाग और विशेषता क्लिनिकों में उपस्थिति
नए रोगी | पुराने रोगी | कुल | |
सामान्य ओपीडी | 5727 | 12540 | 18267 |
विशिष्टता क्लिनिक | |||
हाइड्रोसिफेलस | 07 | 157 | 164 |
इंटरसेक्स | 27 | 268 | 294 |
क्रेनियोसिनोस्टोसिस | 02 | 19 | 21 |
<बाल मूत्र रोग विज्ञान | 355 | 2729 | 3084 |
<बाल ठोस ट्यूमर | 131 | 1710 | 1841 |
<लघु क्रियाएं | 2968 |
दाखिले
एबी | 1219 |
एबी5-आईसीयू | 205 |
शल्य प्रक्रियाएं
बड़े | 1852 |
छोटे | 645 |
सीआरएचएस बल्लभगढ़ में< | 253 |
कुल | 2750 |
विशेष जांच :
यूरोडायनामिक मूल्यांकन | 425 |
यूरोफ्लोमिट्री | 724 |
एनो-रेक्टल मैनोमिट्री | 73 |
ग्रासनलीमैनोमिट्री | 1 |
24-घण्टे पीएच < | 12 |
राष्ट्रीय स्तर पर इस संस्थान के बाल शल्य चिकित्सा विभाग ने बाल शल्य चिकित्सा के विकास हेतु महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं। देश के बाल शल्य चिकित्सकों का सबसे पहला राष्ट्रीय सम्मेलन 1976 में प्रथम डब्ल्यूएचओ / एनएएमएस द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय गोष्ठी के दौरान एम्स के शल्य चिकित्सा विभाग में किया गया था। सम्मेलन की सिफारिशों से बाल शल्य चिकित्सा के विकास की रूपरेखा बनाई गई थी। इस पर 1982 में एम्स के बाल शल्य चिकित्सा विभाग में द्वितीय डब्ल्यूएचओ / एनएएमएस द्वारा एक अनुवर्तन किया गया था।
कार्यशाला, गोष्ठियां, संगोष्ठियां :
विभाग द्वारा 1980 में नवजात शल्य चिकित्सा पर प्रथम अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला की मेजबानी की गई। तब से विभाग द्वारा प्रति वर्ष विभिन्न कार्यशालाओं, गोष्ठियों, सम्मेलनों और अन्य अध्यापन पाठ्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। अब तक विभाग द्वारा बाल वक्ष शल्य चिकित्सा, पैनक्रिएटिक और हिपेटोबाइलरी शल्य चिकित्सा, वेस्कुलर विकृतियों, इसोफेगस शल्य चिकित्सा, बाल मूत्र रोग विज्ञान और अंतर लिंग विकारों के क्षेत्र में ऐसे 35 सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं, जिसमें भारत और विदेश के जाने माने संकाय सदस्यों को आमंत्रित किया जाता है। विभाग द्वारा नवजात सघन देखभाल, आंवल बांधने के स्टेपलर, सिलाई के प्रेक्टिकल, नवजात पुनर्जीवन के क्षेत्र में नर्सों के प्रशिक्षण हेतु कार्यशालाओं और गोष्ठियों की मेजबानी भी की जाती है। वर्ष 1999 में हाइपो स्पेडियास तथा अंतर लिंग विकारों पर अंतरारष्ट्रीय कार्यशाला, 2000 में नवजात शल्य चिकित्सा पर अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला और हाल ही में न्यूरोजेनिक ब्लेडर तथा हाइपोस्पेडियास पर एक अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन 2001 में किया गया जिसमें न केवल भारत बल्कि विदेशों के भी प्रतिनिधियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। ये सभी बहुत शिक्षा प्रद और सूचनाप्रद सिद्ध हुए। बाल रोग इसोफेगस सहित कॉस्टिक इसोफेजियल बर्न की रोकथाम तथा उपचार तथा जीवंत ऑपरेशन कार्यशाला द्वारा इसोफेजियल शल्य चिकित्सा पर तीसरी कॉन्ग्रेस (1-3 फरवरी, 2002) का आयोजन विभाग द्वारा किया गया जो शिक्षा के क्षेत्र में एक अन्य उपलब्धि है। वर्ष 2010�2011 में विभाग द्वारा निम्नलिखित सम्मेलनों और सीएमई का आयोजन किया गया था।
- बाल शल्य चिकित्सा की तीसरी वर्ल्ड कॉन्ग्रेस, नई दिल्ली, 21-24 अक्तूबर, 2010.
- भारतीय बाल शल्य चिकित्सकों का 36वां वार्षिक राष्ट्रीय सम्मेलन, नई दिल्ली, 21-24 अक्तूबर, 2010.
- इंडियन सोसाइटी ऑफ पीडियाट्रिक यूरोलॉजी, नई दिल्ली, दिसम्बर 3-4, 2010.
- आईएपीएस के दिल्ली चैप्टर का सम्मेलन, नई दिल्ली, 26 फरवरी, 2011.
- न्यूनतम भेदक सर्जरी पर पूर्व कॉन्ग्रेस पाठ्यक्रम, 21 अक्तूबर 2010, नई दिल्ली, भारत
- एनोरेक्टल विकृतियों पर पूर्व कॉन्ग्रेस पाठ्यक्रम , 21 अक्तूबर 2010, नई दिल्ली, भारत
- हाइपोस्पेडियास तथा डीएसडी पर जीवंत ऑपरेशन कार्यशाला, 25-26 अक्तूबर 2010, नई दिल्ली, भारत
- बाल मूत्र रोग ओंकोलॉजी पर गोष्ठी, 3 � 4 दिसम्बर, 2010, एम्स, नई दिल्ली
विभाग के पूर्व और वर्तमान सदस्यों को अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार तथा सम्मेलन प्राप्त हुए हैं। संकाय के सदस्यों ने न केवल राष्ट्रीय संघों को सेवा प्रदान की है बल्कि उन्हें किसी प्रतियोगिता के बिना एशियाई संघों और बाल शल्य चिकित्सा संघ के विश्व फेडरेशन के लिए मनोनीत भी किया गया है। संकाय के सदस्य राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेकर अपने ज्ञान को लगातार अद्यतन बनाते हैं। उन्होंने विभिन्न अध्येतावृत्तियों तथा छात्रवृत्तियों के माध्यम से बाल शल्य चिकित्सा में उत्कृष्टता केन्द्रों का दौरा भी किया है। विभाग के अनेक पूर्व सदस्य इस समय अनेक महत्वपूर्ण संकाय पदों पर भारत और विदेश के विभिन्न्ा बाल रोग शल्य चिकित्सा केन्द्रों में कार्यरत हैं (चिकित्सा महाविद्यालयों के प्रमुख, भारत के अन्य विभागों के प्रमुख और बाल शल्य चिकित्सा परामर्श दाता के रूप में)।
विभाग ने पूर्व समय में उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त की हैं और यह रोगी देखभाल, क्लिनिकल तथा प्रायोगिक अनुसंधान में उत्कृष्टता पाने के लिए कठिन परिश्रम जारी रखता है और यहां डॉक्टरों को पोस्ट डॉक्टरल अध्यापन तथा प्रशिक्षण का अवसर मिलता है। हम अपनी सर्वोत्तम क्षमता और समर्पण की परम्परा को जारी रखने के लिए वचनबद्ध हैं और हमें आशा है कि हम जनता की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे।
विलिस पॉट्स - उत्तरी अमेरिका के बाल शल्य चिकित्सा के अग्रणियों में से एक हैं, इनके सिद्धांतों को उनकी पुस्तक "सर्जन एण्ड द चाइल्ड" के आवरण में बताया गया है, जिसे 1959 - में प्रकाशित किया गया था और यह एक ऐसे नवजात बच्चे के प्रति समर्पित है जिसके पास गंभीर विकृति के साथ जीवन जारी रखने का दुर्भाग्य जुड़ा है और इसमें कहा गया है "यदि यह बच्चा बोल सकता तो वह डॉक्टर से एक ही फरियाद करता कि कृपया बहुत नर्मी का इस्तेमाल करते हुए मेरे छोटे छोटे अंगों को सुधार दो और पहले ही ऑपरेशन में इस विकृति को ठीक करने का प्रयास करो। मुझे सही मात्रा में रक्त, तरल और इलेक्ट्रोलाइट तथा ढेर सारे ऑक्सीजन के साथ एनेस्थिसिया दो और मैं तुम्हें दर्शाऊंगा कि मैं शल्य चिकित्सा की इस भारी पीड़ा को कैसे सहन कर सकता हूं। तुम मेरे ठीक होने की गति को देखकर चकित रह जाओगे और मैं हमेशा तुम्हारा आभारी रहूंगा।"