प्रो ए. के बनर्जी
(1965-1995)वर्तमान मेंअवकाश प्राप्तप्रोफेसरन्यूरोसर्जरी
मैं मई 1965 में वैल्लोर जहां पर मैं लेक्चरर था, से जी. बी. पंत अस्पताल, दिल्ली और ऑल इण्डिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ, बंगलौर (जो बाद में निम्हैन्स बना) में रीडर की नौकरी हेतु संघ लोक सेवा आयोग में इंटरव्यू देने दिल्ली आया था। मैं अकेला अभ्यर्थी था और अंत में मुझसे यह पूछ गया कि मैं कहां जाना चाहूंगा। मैंने बंगलौर चुना। इंटरव्यू पर जाने से ठीक पहले में एम्स में डॉ. बलदेव सिंह और डॉ. पी. एन. टंडन (पीएनटी) से मिलने गया था। वे एक ही ऑफिस शेयर करते थे और बड़ी अधीरता से मकड़ी की तरह न्यूरोसर्जरी के एक शिकार को पकड़ने का प्रयास कर रहे थे जो कि एम्स में रह सके और उस समय वहां पर वास्तव में कोई स्थान, उपकरण या स्टाफ नहीं था। कुछ देर सामान्य चर्चा के बाद अचानक डॉ. बलदेव सिंह ने मुझे कहा कि क्या मैं वाकई इंटरव्यू के लिए जाना चाहता हूं क्योंकि मुझे संभवत: एम्स में नौकरी मिल सकती है। नि:संदेह मैंने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि ज्यादा पाने के लालच में जो आपके पास है उसे गंवाना ठीक नहीं है। उसके बाद डॉ. टंडन ने मुझे अपने घर पर उस शाम चाय पर बुलाया। मैं यूपीएससी कार्यालय चला गया। आज जब मैं इतनी बड़ी संख्या में इंटरव्यू देने के लिए अभ्यर्थियों को देखता हूं तो मुझे अपना अनुभव आश्चर्यजनक लगता है।
इंटरव्यू से लौटकर मैंने इस बात को गोपाल और उनकी पत्नी राधा (डॉ. जी. के. विश्वकर्मा तब आर्थोपीडिक्स के असिसटेंट प्रोफेसर थे और बाद में भारत के डीजीएचएस बने) उन्होंने ही एम्स आने और बंगलौर को भूल जाने का गहरा दवाब बनाया। संयोगवश बंगलौर में एक कार्य करता हुआ, पूर्ण सुविधा युक्त विभाग था और वहां पर प्रो. आर एम वर्मा थे जिन्होंने मेरे एम्स जाने के बाद भी मुझे वहां जे जाने के लिए अथक प्रयास किया।
उस शाम में टंडन जी के घर पर रुका। डॉ. पी. एन. टंडन 1952 में मेरे एनाटॉमी के डेमोस्ट्रेटर थे जबकि श्रीमती लीला टंडन मेडिकल कॉलेज, लखनऊ में मेरी ओब्सेटट्रिक्स और गायनाकोलॉजी की लेक्चरर थी। मैं डॉ. पी. एन. टंडन से 1963 में कलकत्ता में न्यूरोलॉजीकल सोसायटी ऑफ इण्डिया की वार्षिक बैठक में मिला था। हम दोनों की ही यह एनएसआई की पहली बैठक थी। डॉ. पी. एन. टंडन ने मार्च 05 में 2 माह पूर्व ही एम्स में न्यूरोसर्जरी विभाग की स्थापना की थी, वह चाहते थे कि मैं वहां आ जाऊं लेकिन उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि वह यह नहीं जानते कि आगे कैसे क्या होगा? गोपाल के घर लौटने पर राधा और गोपाल मुझे शीला थियेटर पर �माई फेयर लेडी�दिखाने ले गए जो कि अगर भारत का नहीं तो दिल्ली का सबसे अच्छा थिएटर था। आधी रात बाद लौटने पर हम छत पर सोने के लिए लेटे और इस बात पर चर्चा करने लगे कि मुझे आगे क्या करना है। मुझे लगता है कि लगभग सुबह होने के आस पास मैं गोपाल और राधा के दवाब के आगे झुक गया और मैंने कहा कि ठीक है यदि नौकरी का प्रस्ताव आएगा तो मैं दिल्ली आ जाऊंगा। अगली सुबह दिल्ली छोड़ने से पहले डॉ. बलदेव सिंह मुझे प्रो. के. एल. विज जो कि तब एम्स के निदेशक थे, से मिलाने ले गए। हम तुरंत एक दूसरे को पसंद करने लगे और यह संबंध हमेशा बना रहा।
मैंने जून �65 में तदर्थ असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यभार ग्रहण किया। वहां पर डॉ. बलदेव सिंह का ही ऑफिस था जिसमें डॉ. पी. एन. टंडन की कुर्सी थी और उसी के साथ मेरे लिए भी एक कुर्सी-टेबल लगा दिया गया। विभाग शुरू करने की प्रक्रिया वास्तव में शून्य से शुरू हुई। एनाटॉमी लेक्चर थिएटर के बगल में पहले तल पर स्थान दिया गया। मैंने और डॉ. विरमानी (न्यूरोलॉजी में मेरे बिल्कुल विपरीत) ने नक्शे बनाए और बड़े हॉलों में कमरे बनाए। उस समय हमारा स्वभाव बिल्कुल विपरीत था। डॉ. विरमानी मुझे बहुत वरिष्ठ थी और साथ ही वह डॉ. बलदेव सिंह को अमृतसर के दिनों से जननी थी और पंजाबी होने का तुरूप का पत्ता भी था जो कि तब एम्स कि लोक भाषा थी। वर्ष दर वर्ष हमारे रिश्ते में मधुरता आ गई व हम एक दूसरे के प्रशंसक बन गए और परस्पर सम्मान देने लगे। विभागों के निर्माण के समय मेरी। कार्यनीति बन गई थी कि जो मैं चाहता था उसका उलटा ही बोलता था क्योंकि डॉ. विरमानी मेरे सुझावों का उलट ही करेगी जो कि मेरे लिए अच्छा था। आज जब मैं इसको मुड्कर देखता हूं तो यह बचकाना सा लगता है। लेकिन तब बड़ा मजा आता था। पिन, कुर्सी, टेबल, अलमारी जैसी चीजें धीरे धीरे इकट्ठा कर वास्तव का ऑफिस बनाना एक नई चुनौती थी जिसका प्रशिक्षण मुझे नहीं दिया गया था। फिर भी, हमने ऑफिस क्यूबिकल्स, प्रयोगशालाएं बनाई और चौथे तल पर जहाजनुमा ओपीडी बनाई। कार्यग्रहण के दो वर्ष बाद इस बात की संतुष्टि थी कि हमारे पास हमारा स्वयं का स्थान था।
हमने सर्जिकल उपकरणों का उपयोग शुरू किया जो कि वास्तव में दूसरे विश्व युद्ध का पुराना सामान था जिसमें एक ऑपरेशन टेबल भी थी। ब्रेस द्वारा चार चरणों में पर होल करना पड़ता था और डॉ. टंडन और मैं इसे कला मैं पारंगत हो गए थे। शुरू में हमारे पास कोई बेड नहीं थे। न्यूरोलॉजी और न्यूरोसर्जरी दोनों के लिए प्रो. के. एल. विज और पीडिट्रीशियन्स ने उदारतापूर्वक अपने बेड हमें वहां उपयोग करने दिए जहां पर कि अब नर्स हॉस्टल है। क्लिनिकल कार्य इतना कम था कि हम शुरू में बेहद निरुत्साहित हो गए थे। मैंने मेडिसिन, पीडिएट्रिक्स और रेडियोलॉजी के एमडी छात्रों के लिए क्लिनिकल शुरू किए। धीरे धीरे मैं इतना लोकप्रिय हो गया कि एक दिन डॉ. विज ने मुझे अपने एक रोगी को देखने के लिए अपने ऑफिस बुलाया। मैंने उन्हें इतना प्रभावित कर दिया कि उसके बाद वे कई अवसरों पर रोगियों के बारे में मेरी राय पूछते। यह उनके लिए छोटी सी बात थी लेकिन इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया जिसके लिए मैं उनका आभारी हूं।
1968 तक ओपीडी ब्लॉक में हमारे पास एक वार्ड (वार्ड ix) था और हम व्यवस्थित हो चुके थे। ऑपरेशन थिएटर नर्सिंग कॉलेज ब्लॉक में थे। रेडियोलॉजी शुरू में नर्स हॉस्टल में था और यह 1968 में मौजूदा स्थान पर शिफ्ट किया गया। उस समय रेडियोलॉजी में 1965 से 1968 तक डॉ. एस. के. घोष थे जिनसे काफी मदद मिली। अक्सर हम सुबह 7.30 बजे वार्ड राउंड, ड्रेसिंग और स्टिच हटाने से शुरूआत करते और उसके बाद न्यूरोरेडियोलॉजी (वेंट्रिकुलोग्राम्स एंजियोग्राम्स इत्यादि) में जाते और फिर इसके बाद सर्जरी होती जो कि हमेशा रात्रि 7 या 8 बजे तक चलती, विशेषकर यदि यह पोस्टीरियर फोस्सा ट्यूमर होता तो। रात में हमने से एक अर्थात् पीएनटी या मैं मुख्य ओटी ब्लॉक के साथ बने डॉक्टर रुम में सोते। 1966 के बाद डॉ. बी. बी. साहनी और डॉ. एम. गौरी देवी, जो अब निम्हैन्स की निदेशक और वाइस चांसलर हैं पर तब न्यूरोलॉजी के रेजीडेंट थे, रात्रि ड्यूटी करके हमारी सहायता करते और सर्जरी में भी हमारी सहायता करते क्योंकि हमारे पास नियमित रेजीडेंट नहीं थे। कर्नल जी. सी. टंडन, जो एनेस्थीसिया के प्रोफेसर थे, की भूमिका अविस्मरणीय है। डॉ. हटंगड़ी के एनेस्थीसिया के लेक्चरों के हमें काफी सहायता मिली और उन्होंने रोगियों की देखभाल के हमारे बोझ को भी साझा किया तथा साथ ही वे हमारे दैनिक कार्यों से भी छुट्टी दे देते थे। उस समय डॉ. हटंगड़ी की वजह से ही मैंने अपनी पत्नी अंजली के साथ दो फिल्में देखी। आगे बढ़ने से पहले मैं ऑपरेशन थिएटर ब्लॉक। एमओटी में कंसल्टेंटस चेंजिंग रूम में अपने पहले दिन के बारे में अवश्य बताना चाहूंगा; जहां में सशंकित होकर इसके वातावरण के बारे में स्वयं ही चला गया। वहां पर केवल एक व्यक्ति ओटी ड्रेस में बैठा था और गंभीरता से अगाथा क्रिस्टी पेपरबैक पढ़ रहा था। अंदर जाने पर उसने मुझसे पूछा कि मैं कौन हूं और फिर सौहार्दता से उठे और मुझसे हाथ मिलाया। वह सर्जरी के आसिसटेंट प्रोफेसर डॉ. सतीश नैयर थे और वह प्रसिद्ध भी थे क्योंकि उन्हें प्राइमरी एफआरसीएस परीक्षा में हैलैट मेडल मिला था। डॉ. सतीश नैयर ने मुझे एक कप चाय दी और फिर कहा कि मुझे कुछ हावी विकसित कर लेनी चाहिए (उनकी हॉबी रहस्यमयी नावल पढ़ना था) क्योंकि असिसटेंट प्रोफेसरों के पास करने के लिए कुछ नहीं होता क्योंकि सभी उपयोगी कार्य प्रोफेसर कर लेते हैं और सभी छोटे कार्य रजिस्ट्रार (बाद में इन्हें रेजीडेंट कहा गया) कर देते हैं। मैं अवसाद से घिर गया जिससे बाहर निकलने में मुझे बहुत समय लगा। एक सप्ताह बाद हिम्मत जुटाकर मैं पीएनटी से इस बारे में बात करने गया। हमने निर्णय लिया कि हम एकांतर मामलों में ऑपरेशन करेंगे और दूसरा उसमें सहयोग करेगा। सब कुछ ठीक चला लेकिन मुझे यह तथ्य परेशान कर रहा था कि यदि वे सहायता करेंगे तो मेरे बाहर आने से पहले बाहर जाकर रोगी के परिवार से बात कर लेंगे। मैं पुन: 1968 में उनके पास गया और पीएनटी ने शालीनता से कहा कि वह ऐसा नहीं करेंगे। यह एम्स के लिए विलक्षण बात थी। असिस्टेंट प्रोफेसर की पहचान के लिए फैकल्टी के साथ मेरा संघर्ष इस कुलीन �तंत्र के विरुद्ध था। और अंतत: 1970 में मैं अस्पताल यूनिटों के नाम बदलने में सफल रहा और जो अब तक हेड के नाम से जानी जाते थे अब विभाग बन गए। अत: प्रो. पीएनटी की यूनिट बदलकर न्यूरोसर्जरी यूनिट बन गई और यह पद्धति आज भी जारी है। मैंने हमेशा महसूस किया कि सहयोगियों से बेहतरीन कार्य करने के लिए लोकतंत्र और भागीदारी मुख्य कारक हैं। इसमें पीएनटी का अत्यधिक सहयोग रहा जिसके कारण मैं दिलोजान से विभाग का और बाद में न्यूरोसाइंस सेंटर का विकास कर सका। मेरा मानना है कि इसमें पत्नियों की भूमिका भी बड़ी है। हमारे परिवार (टंडन और बनर्जी) एक दूसरे के बेहद करीब थे और आज भी बनर्जी परिवार में टंडन परिवार से परामर्श लिए बगैर कोई बड़ा निर्णय नहीं लिया जाता। मुझे लगता है हमारा मिलना हम दोनों के लिए ही सौभाग्यपूर्ण रहा।
1969 में डॉ. एस. के. घोष प्रोफेसर के रूप में पदोन्नत होकर गोवा चले गए और न्यूरोरेडियोलॉजी की जिम्मेदारी डॉ. आर. के. गुलारिया पर आ गई जिनके लिए न्यूरोरेडियोलॉजी में अलग पद का सृजन किया गया। 70 के मध्य में डॉ. एस. एस. सैनी से न्यूरोएनेस्थीसिया में जाने का अनुरोध किया गया और यहां से व्यापक क्लिनिकल सेट अप की शुरूआत हुई। सौभाग्य से हम श्रीमती डी. सैनी को हमारी ओटी सिस्टर इंचार्ज के रूप में कार्यभार ग्रहण करने के लिए मना पाए और इसीलिए वहां पर परिवार और अपनत्व की भावना थी जो कि किसी भी नए उपक्रम के विकास के चरणों के दौरान अत्यंत महत्वपूर्ण है। डॉ. सुबीमल राय तस्वीर को पूरा करने हेतु न्यूरोपैथोलॉजी में काफी समय बीता रहे थे। पीएनटी की तरह ही न्यूरोसाइंसेज सेंटर का मेरा भी सपना था लेकिन मुझे पता था बेसिक न्यूरोसाइंसेज आर्थिक बाध्यताओं के कारण कभी भी स्वयं विकसित नहीं हो सकती। मैं क्लिनिकल न्यूरोसाइंसेज के विकास पर और बेसिक न्यूरोसाइंसेज को इसके अधीन लाने पर बल दे रहा था।
70 के मध्य तक न्यूरोसर्जरी और न्यूरोलॉजी दोनों ने स्वयं को चौथे तल पर मुख्य अस्पताल में पुन: स्थापित कर लिया था और हमारा सौभाग्य था कि हमारे पास अपने वार्ड थे। श्रीमती एम. बिंद्रा ने सिस्टर आई/सी ऑफ न्यूरोसर्जरी के रूप में कार्यभार ग्रहण किया और अंतत: उनके समर्पण के कारण हमारा वार्ड नर्सिंग केयर के क्षेत्र में संस्थान में चर्चा का विषय बन गया। अंत में वे न्यूरोसाइंसेज सेंटर की नर्सिंग सुपरिन्टेडेंट बनीं।
1966 में एक दिन मेरे ऑफिस में डॉ. ब्रहम प्रकाश आए जिन्होंने सेना में शार्ट सर्विस कमीशन से त्यागपत्र दे दिया था और हाल ही में उनकी शादी हुई थी। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था और उन्होंने मुझे सलाह मंत्री कि उन्हें क्या करना चाहिए। वे मेडिकल कॉलेज, लखनऊ में जनरल सर्जरी में मेरे जूनियर रेजीडेंट के रूप में काम कर चुके थे और यह संबंध लगभग 10 वर्ष पुराना था। मैंने उनसे न्यूरोसर्जरी में आने के लिए कहा। हम बेहद उत्साह लेकिन न्यूनतम सुविधाओं के साथ एमसीएच पाठ्यक्रम शुरू करने हेतु अपेक्षिक औपचारिकताएं पूरी करने में सफल रहे। वह पहले प्रशिक्षु थे और बाद में हमारी फैकल्टी में शामिल हुए तथा उसके बाद जी. बी. पंत अस्पताल में डायरेक्टर प्रोफेसर बने और उन्होंने स्वयं का एमसीएच प्रोग्राम शुरू किया। एम्स को एमसीएच पाठ्यक्रम और बेहतरीन बनता चला गया और हमारे पास 5 वर्ष और 3 वर्ष दोनों की शाखाएं थी। 1965 में न्यूरोलॉजी डी. एम. शुरू हो चुका था। अब एम्स के प्रशिक्षु भारत भर में फैले हैं। कई विभागों के प्रमुख भी हैं जैसे डॉ. गौरी देवी निम्हैन्स की डायरेक्टर, वाइस चांसलर बनी, डॉ. बी. प्रकाश जी. बी. पंत अस्पताल, दिल्ली में, डॉ. बी. एस. दास, निम्हैन्स में डॉ. एस मोहंती, आईएमएस, बीएचयू वाराणसी में डॉ. ए. के. रेड्डी, एनआईएमएस, हैदराबाद में और डॉ. एम. ए. वानी एस के आई एम एस, श्रीनगर में हैं। कई शिक्षण तथा निजी क्षेत्र में महत्वपूर्ण पदों पर हैं। हमें अर्थात् पीएनटी और मुझे हमसे प्रशिक्षण लेने वालों पर अत्यंत गर्व है और हम उन्हें उनके भावी प्रयासों के लिए शुभकामनाएं देते हैं। हमारी इच्छा है कि उनकी उपलब्धियां हमसे भी अधिक हों। क्लिनिकल सर्विसेज में एक बड़ा मोड़ 1976 में प्रो. एच. डब्ल्यू पिया के आने से आया जिन्होंने लैबोरेटरी माइक्रोसर्जरी का कोर्स किया था। हमने अगले कुछ वर्षों में माइक्रोसर्जरी लैबोरेटरी की शुरूआत की और ऑपरेटिव माइक्रोसर्जरी की पहल की गई। भारतीय परिदृश्य में हम सबसे अग्रणी स्थान पर आ गए। 60 के अंतिम दशक में ईएनटी सर्जन डॉ. एस. के. कक्कर के सहयोग से हमने ट्रांसस्फीनायडल पिट्यूटरी सर्जरी शुरू की जिसे 70 के दशक में समेकित किया गया और यह एक नियमित प्रक्रिया बन गई।
कार्डियोथोरेसिक साइंसेज सेंटर के सहयोग से न्यूरोसाइंस सेंटर के विकास की प्रक्रिया वास्तव में ईमानदारी से 70 के शुरू में आरंभ हुई। कार्डियोकोरेसिक सर्जरी के डॉ. एन. गोपीनाथ और पीएमटी इसके निर्माता थे। भूमि आबंटन एम्स के तत्कालीन निदेशक प्रो. वी. रामालिंगास्वामी द्वारा किया गया था। घोष एण्ड प्रधान एसोसिएट्स को आर्किटेक्ट नियुक्त किया गया और तब हमारे सेंटर के बेसमेंट, भूमि तल और ऑपरेशन थिएटर ब्लॉक की योजना बनी शुरू हुई। आर्किटेक्टों के साथ कई कई घण्टे बैठकें हुईं, योजनाएं बनीं, फाड़ी गईं और यह क्रम चलता रहा। मैंने अपनी पत्नी को यह कहते हुए सुना कि मैं तों नींद में भी योजना की बातें करता रहता हूं। नींव रखी जाने के लिए लगभग तैयार थी। यह 1977 का वर्ष थी। यह 1977 का वर्ष था और श्रीमती इंदिरा गांधी की अलोकप्रिय इमरजेंसी खत्म होने वाली थी। दोपहर में एक दिन पीएनटी के ऑफिस में डॉ. एन गोपीनाथ ने अचानक से कहा कि श्रीमती गांधी इसकी आधार शिला रखेंगी तो अच्छा रहेगा। मैंने हाल ही में श्री धवन (तब श्रीमती इंदिरा गांधी के निजी सचिव थे) के भतीजे का इलाज किया था इसलिए मैंने कहा कि मैं कोशिश करूंगा। मैंने पीएनटी के ऑफिस से उन्हें फोन मिलाया। श्री धवन ने तत्काल हां बोल दिया और कहा कि उन्हें संभावित तिथि और समय बता दिया जाए ताकि श्रीमती गांधी के दौरा �कार्यक्रम को ध्यान में रखते हुए इसकी पुष्टि की जा सके। चुनाव नजदीक ही थे और डॉ. रामालिंगास्वामी ने बुद्धिमता दिखाते हुए हम से गति धीमी रखने को कहा। श्रीमती गांधी चुनाव हार गईं और यह संभव था कि यदि हम आधार शिला श्रीमती इंदिरा गांधी से रखवाते तो उस समय जीतने वाली जनता सरकार को यह बुरा लगता और सेंटर का कार्य देर से शुरू होता। अंतत:, राष्ट्रपति श्री नीलम संजीवा रेड्डी ने 1976 में शिलान्यास किया। जब भवन का कार्य शुरू हुआ कई समस्याएं आई जैसे हमें अचानक पता चला कि शौचालय कम हैं जबकि कार्डियोलॉजी के अधिकांश मरीज डायूरेटिक्स पर थे और उन्हें बार बार शौचालय जाने पड़ता था। दुबारा बोर्ड पर दीवारें तोड़ी गई, नई सीवर लाइनें बिछाई गईं और इस प्रकार नए शौचालय बने। मुझे ओपीडी के बारे में पता है और बेशक आज शौचालयों की संख्या सेंटर में आने वाले रोगियों की बढ़ती संख्या के कारण अपर्याप्त हो गई हैं।
1977 से 1979 के जनता शासन की छोटी सी अवधि में हमेशा प्रसन्नचित रहने वाले श्री राज नारायण स्वास्थ्य मंत्री बने। मंत्रालय में सारा काम रुक गया और साथ ही हमारे सेंटर में भी, जिसे श्री राज नारायण के अनिश्चित तौर तरीकों की मार झेलनी पड़ी। मुझे केवल वर्तमान में जो कम्युनिटी मेडिसिन डिपार्टमेंट है, वहां पर देर शाम उनसे हुई मुलाकात याद है। यदि मुझे ठीक से याद है तो श्री राजनारायण सेंटर ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन के उद्घाटन के लिए आ रहे थे। हमेशा की तरह वह कई घण्टे लेट थे और तत्कालीन निदेशक डॉ. एल. पी. अग्रवाल 3-4 फैकल्टी सदस्यों के साथ खड़े थे। मैंने वहां से खिसकने की कोशिश की लेकिन डॉ. एल. पी. अग्रवाल ने मुझे बुलाया और मुझे श्री राज नारायण की प्रतीक्षा करने के लिए लगभग बाध्य कर दिया। अंत: वह तब आए जब प्रतीक्षारत लोगों की संख्या लगभग 6 थी। रिबन काटने से पहले हम सभी से उनका परिचय कराया गया। मुझे देखकर उन्हें जिज्ञासा हुई और उन्होंने पूछ लिया कि यदि मुझे श्रीमती इंदिरा गांधी के सिर के भीतर देखने का अवसर मिले तो मुझे क्या दिखेगा। मैंने नम्रता से अपनी बात कही यद्यपि मुझे विश्वास था कि श्रीमती के दिमाग की क्वालिटी श्री राज नारायण से बेहतर होगी। खैर, उन्होंने मारीशस के डॉ. सिबुसागर रामगुलाम को मानद डी. लिट की उपाधि से सम्मानित किए जाने के विशेष दीक्षांत समारोह के दौरान बेहद खुश होकर इस वाकए को सुनाया। यह इतना खराब था कि समारोह की अध्यक्षता कर रहे मोरारजी देसाई की त्योरियां चढ़ गई और आडिटोरियम में बैठे। हम सभी लोगों ने शर्म से अपना सिर झुका लिया।
मेरा, न्यूरोसाइंसेज सेंटर के प्रमुख के रूप में दो बार का कार्यकाल सेंटर के विकास में महत्वपूर्ण था। पहला कार्यकाल 2 वर्ष का था जब मैं सेंटर का कार्यकारी प्रमुख था और उस दौरान डॉ. पीएनटी 1984-86 के बीच नेहरु फेलोशिप पर गए हुए थे। यह वह समय था जब भवन के पहले चरण (ओपीडी, रेडियोलॉजी विंग, बेसमेंट और ओटी ब्लॉक) के पश्चात् हम सेंटर के विस्तार को लेकर निष्क्रिय स्थिति में पहुंच चुके थे। प्रो. एम. एल. भाटिया कार्डियोथोरेसिक साइंसेज सेंटर के प्रमुख थे। निधि की आवश्यकता संबंधी हमारे औपचारिक अनुरोधों को स्वास्थ्य मंत्रालय के तत्कालीन संयुक्त सचिव वित्त सलाहकार (जेएसएफए) द्वारा कड़ाई से अस्वीकृत कर दिया गया। सुश्री सरला ग्रेवाल, जिन्हें उनके निष्ठुर साथी �हंटरवाली�बुलाते थे, सचिव थी। हमें सलाह दी गई कि उन्हें प्रभावित करने की कोशिश न की जाए क्योंकि इससे हमारे प्रस्ताव का अकल्पनीय विरोध हो सकता है। फिर भी, हम उनसे मिलने गए, उनके समक्ष अभी तक हुई प्रगति को रखा और साथ ही अपने बढ़ते हुए क्लिनिकल बोझ, बढ़ती जन अपेक्षाओं और सेंटरों के विस्तार में हमारे समक्ष आने वाली बाधाओं से लेकर हमने मूलत: क्या सोचा था, इस बारे में भी बताया। सुश्री ग्रेवाल ने ध्यान पूर्वक हमारी बात सुनी। बीच बीच में कभी कभार वे स्पष्टीकरण मांगती। जब हमने अपनी पूरी बात कह दी तो उन्होंने जेएसएफए, जो कि सबसे बड़ी रुकावट थी, को बैठक में आने के लिए कहा। जैसे ही उसने हमें देखा उसकी त्योरियां चढ़ गई। जब सुश्री ग्रेवाल ने उससे पूछा कि हमें अनुदान देने में क्या समस्या है तो वह शुरू हो गया और उसने एम्स द्वारा वित्तीय कुप्रबंधन की एक लंबी सूची तैयार कर दी जिसमें हमारे सेंटरों की कोई भूमिका नहीं थी यही कहा जा सकता है कि जितनी समस्याएं बताई गई थीं उनमें से अधिकांश को तोड़ा मरोड़ा गया था)। सुश्री ग्रेवाल ने पूछा कि एम्स की गलती के लिए हमारे सेंटरों को देर क्यों दिया जा रहा है। इस पर जेएसएफए बोला कि यह वित्तीय प्रबंधन का हिस्सा है और इसके लिए वह उत्तरदायी है। तब हमने लेजेंडरी सुश्री सरला ग्रेवाल का वास्तविक रूप देखा। ठेठ पंजाबी में उन्होंने जेएसएफए से पूछा कि मंत्रालय का सचिव कौन है और उसकी उनसे इस तरह बात करने की हिम्मत कैसे हुई। बेचारा जेएसएफए बड़बड़ाया अकड़ा और उसके बातचीत में दखल देने की कोशिश की। सुश्री ग्रेवाल ने उसे ऑफिस से चले जाने को कहा और तभी हम समझ गए कि हमने आधी लड़ाई जीत ली है। लेकिन उनके ऑफिस से निकलने के बाद प्रो. एम. एल. भाटिया और मैं व्यवहार कुशलता दिखाते हुए जेएसएफए के ऑफिस गए। वह बहुत दु:खी था। हमने उसकी मदद मांगकर उसके अहम् की तुष्टि की क्योंकि हम जानते थे वह वित्त (व्यय) सचिव के पास जा सकता है और हमारे प्रस्तावों को बिगाड़ सकता है। मुझे लगता है कि यह काम कर गया और वह हमारा समर्थक बन गया। नि:संदेह उसे सहायता करनी पड़ी क्योंकि जेएसएफएके कुछ नजदीकी रिश्तेदार ठीक उसी समय बीमार पड़ गए और उन्हें कार्डिएट और न्यूरोसर्जरी की आवश्यकता थी। निधियां अंतत: प्राप्त हुई यद्यपि इसमें एक वर्ष का समय और लग गया और 1986 में वर्तमान सेंटर के शेष भवन का कार्य आरंभ हुआ। प्रो. पी. वेणुगोपाल ने सदैव हमारे प्रयासों में हमें सहयोग दिया। इसी अवधि में अगले केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव श्री श्रीनिवासन थे जिन्हें हमारें सेंटरों में कोई रुचि नहीं थी। उनका यह मानना था कि हमारे पास स्टाफ ज्यादा है, हम उपकरणों का अल्पउपयोग करते हैं और हमारा क्लिनिकल आउटपुट अन्य अस्पतालों यथा जी. बी. पंत अस्पताल, दिल्ली, क्रिस्टियन मेडिकल कॉलेज, वैलोर और अपोलो हॉस्पीटल, मद्रास की तुलना में तो निश्चित तौर पर कम था क्योंकि उसके अनुसार वहां का वित्तीय प्रबंधन और आउटपुट उत्कृष्ट था। संयोगवश वह एस्कार्ट्स हार्ट इंस्टीट्यूट को शुरू करने में शामिल हो गए जिसके बारे में उन्होंने हमसे स्पष्ट कहा था कि यह हमसे बेहतर है। प्रो. भाटिया, वेणुगोपाल और मैंने, हमारे सभी रिकॉर्ड देखें और अन्य संस्थानों जिनके बारे में श्री श्रीनिवासन का मानना था कि वे बेहतर गुणवत्ता के हैं और वहां पर अधिक कार्य होता है, से जो भी सूचना हमें मिल सकती थी, एकत्र की। उन्होंने हमारे न्यूरोसाइंसेज ग्रुप के साथ स्थिति का जायज़ा लेने के लिए अलग से बैठक की। मैं प्रेजेंटशन, जो कि मैंने तैयार की थी, को प्रस्तुत करने के लिए डॉ. बलदेव सिंह और डॉ. पी. एन. टंडन को अपने साथ ले गया था। अंत में श्री श्रीनिवास हमारे प्रस्तावों की वास्तविकता से संतुष्ट हो गए। उस समय मेरा तर्क था कि हमें जी. बी. पंत अस्पताल जिसका आउटपुट हमसे आधा था, के बराबर वित्तीय अनुदान दिया जाए। यह एक बहुत बड़ी जीत थी क्योंकि हमारे अनुदान तत्काल बढ़ा दिए गए और यह प्रवृत्ति भविष्य में भी जारी रही।
सेंटर के प्रमुख के रूप में मेरा दूसरा कार्यकाल 1988-95 तक था। हमें वित्त पोषण काफी मात्रा में मिल रहा था। हमारे पास सीटी स्कैन तथा अत्याधुनिक एंजियोग्राफी उपकरण था। हमारा आईसीयू देश में सबसे बढिया था। हमारे पास केवल एमआरआई स्कैनर नहीं था। मैं श्री आर एल मिश्रा जो कि मेरे कार्यकाल के पश्चकाल में केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव थे, का विशेष धन्यवाद करना चाहूंगा। केवल उन्हीं की सहायता से हमें एम्स में एनएमआर डिपार्टमेंट का सेट अप मिला जो कि मात्र एमआरआई उपकरण प्राप्त करने से कहीं अधिक था। संयोगवश आज भी एनएमआर विभाग में केवल दो टेस्ला मशीन हैं जो एमआर स्केन और एमआर स्पेक्ट्रोस्कोपी करती हैं। एनएमआर विभाग में केमिकल एनएमआर भी है और आज भारत का एकमात्र प्रायोगिक एनएमआर है। तत्कालीन निदेशक डॉ. एस. के. कक्कर जिनका समर्थन हमेशा मिलता रहा, की सहायता से पूरे विभाग का सृजन करना एक अनूठा अनुभव है।
मेरे कार्यकाल के दौरान ही सेंटर को न केवल भारत में अपितु एशिया क्षेत्र में सर्वसुविधा युक्त बनाने हेतु सरकार को प्रस्ताव भेजे गए। मेरे सेवानिवृत्त होने के पश्चात् गामा नाइफ शुरू हुआ और मुझे विश्वास है कि आने वाले समय में पीईटी स्कैन और अन्य नए उपकरण भी आ जाएंगे।
अक्सर मुझसे पूछा जाता है कि क्या मुझे किसी बात का खेद है। मुझे विशेष रूप से इस बात का खेद है कि हमारे ऑफिस मुख्य संस्थान से हटाए जा रहे है। मूलत: यह प्रावधान किया गया था कि ऑफिस वहीं पर रहेंगे जहां पर वे स्थित है अर्थात एनाटॉमी डिस्सेक्शन हाल के बगल में। इस स्थानांतरण से संस्थान में अन्य स्पेशियलिटीज की मुख्य जीवन रेखा कट गई है। यह पृथक्करण हमारे सेंटर के भविष्य के लिए शुभ नहीं है क्योंकि चिकित्सा की किसी भी शाखा को फलने-फूलने के लिए सहयोगी शाखाओं के साथ विचार विमर्श की आवश्यकता होती है। मुझे इस बात भी खेद है कि नॉन क्लिनिकल न्यूरोसाइंसेज हमारे सेंटरों के लिए भवन में पहुंचने और वहां पर स्थापित होने में असफल रहा है। मैंने कोशिश की थी और यहां तक कि कई बहानों से एक वर्ष तक एक तल को खाली भी रखा था।
मुझे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि मुझे ऐसे साथी मिले जो जीवन पर्यंत मेरे मित्र बन गए। मैं जानता हूं कि मैंने जीवंत और सक्रिय सेंटर दिया है जो दिनों दिन केवल सुदृढ़ होता जाएगा। आज भी, कोई भी बात हो तो मैं हमेशा यही कहता हूं कि एम्स का न्यूरोसाइंसेज सेंटर सबसे उत्कृष्ट है और मेरी हर सांस इसे इसकी भावी प्रयासों के लिए शुभकामनाएं ही देता है।